Afim ki kheti me adhik utpadan kaise le


अफीम की खेती भारत, चीन, एशिया माइनर, तुर्की आदि देशों में मुख्यत: होती है। भारत में अफीम की खेती उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश एवं राजस्थान में बोई जाती है। अफीम की खेती करने के लिये सरकार के नारकोटिक्स विभाग से अनुमति लेना आवश्यक है। अफीम के पौधे से अहिफेन यानि अफीम(पौधे का दूध) निकलती है, जो नशीली होती है।
अफीम की खेती की ओर लोग सबसे ज्यादा आकर्षित होते हैं। वजह सीधी सी है। और वो है बहुत ही कम लागत में अच्छी कमाई होना। वैसे तो देश में अफीम की खेती गैरकानूनी है लेकिन अगर इसे नारकोटिक्स विभाग से लाईसेंस लेकर किया जाए,तो फिर आपको कोई डर नहीं।


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जलवायु

अफीम की फसल को समशीतोष्ण जलवायु की आवश्यकता होती है। इसकी खेती के लिए 20-25 डिग्री सेल्सियम तापमान की आवश्यकता होती है। 







भूमि

अफीम को प्राय: सभी प्रकार की भूमि में उगाया जा सकता है परन्तु उचित जल निकास एवं पर्याप्त जीवांश पदार्थ वाली मध्यम से गहरी काली मिट्टी जिसका पी.एच. मान 7 हो तथा जिसमें विगत 5-6 वर्षों से अफीम की खेती नहीं की जा रही हो उपयुक्त मानी जाती है। 

खेत की तैयारी

अफीम का बीज बहुत छोटा होता है अत: खेत की तैयारी का महत्वपूर्ण योगदान होता है। इसलिए खेत की दो बार खड़ी तथा आड़ी जुताई की जाती है। तथा इसी समय 20-30 गाड़ी अच्छी प्रकार से सड़ी गोबर खाद को समान रूप से मिट्टी में मिलाने के बाद पाटा चलाकर खेत को भुर-भुरा तथा समतल कर लिया जाता है। इसके उपरांत कृषि कार्य की सुविधा के लिए 3 मी. लम्बी तथा 1 मी. चौड़ी आकार की क्यारियां तैयार कर ली जाती हैं।

प्रमुख किस्में

जवाहर अफीम-16, जवाहर अफीम-539 एवं जवाहर अफीम-540 आदि मध्य प्रदेश के लिए अनुसंशित किस्में हैं |


बीज दर तथा बीज उपचार-


कतार में बुवाई करने पर 5-6 कि.ग्रा. तथा फुकवा बुवाई करने पर 7-8 कि.ग्रा. बीज प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता होती है।
अफीम में लगने वाले डाउनी मिलडायू रोग के नियंत्रण के लिए बीज उपचार करना बहुत जरूरी है इससे रोग का प्रारंभिक नियंत्रण हो जाता है मेटैलेक्सिल नामक दवा से 10 ग्राम प्रति किलो बीज को उपचारित अवश्य करें ।
बुवाई समय : अक्टूबर के अन्तिम सप्ताह से नवम्बर के दूसरे सप्ताह तक अनिवार्य रूप से कर दें।

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बुवाई विधि :

 
बीजों को 0.5-1 से.मी. गहराई पर 30 से.मी. कतार से कतार तथा 0-9 से.मी. पौधे से पौधे की दूरी रखते हुए बुवाई करें।
निदाई- गुड़ाई तथा छटाई : 
निंदाई-गुड़ाई एवं छटाई की प्रथम क्रिया बुवाई के 25-30 दिनों बाद तथा दूसरी क्रिया 35-40 दिनों बाद रोग व कीटग्रस्त एवं अविकसित पौधे निकालते हुए करनी चाहिए। अन्तिम छटाई 50-50 दिनों बाद पौधे से पौधे की दूरी 8-10 से.मी. तथा प्रति हेक्टेयर 3.50-4.0 लाख पौधे रखते हुए करें।
खाद एवं उर्वरक :  अफीम की फसल से अधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिए मिट्टी परीक्षण के आधार पर खाद एवं उर्वरक की अनुशंसित मात्रा का उपयोग करें। इस हेतु वर्षा ऋतु में खेत में लोबिया अथवा सनई कि हरी खाद बोना चाहिए। हरी खाद नहीं देने की स्थिति में 20-30 गाड़ी अच्छी प्रकार से सड़ी हुई गोबर खाद खेत की तैयारी के समय दें। इसके अतिरिक्त यूरिया 38 किलो, सिंगल सुपरफास्फेट 50 किलो तथा म्यूरेट आफ पोटाश आधा किलो गंधक/10 आरी  (1000 वर्ग मीटर ) के हिसाब से डालें।
सिंचाई : बुवाई के तुरन्त बाद सिंचाई करें, तदोपरान्त 7-10 दिन की अवस्था पर अच्छे अंकुरण हेतु, तत्पश्चात 12-15 दिन के अन्तराल पर मिट्टी तथा मौसम की दशा अनुसार सिंचाई करते रहें। कली, पुष्प, डोडा एवं चीरा लगाने के 3-7 दिन पहले सिंचाई देना नितान्त आवश्यक होता है। भारी भूमि में चीरे के बाद सिंचाई न करें एवं हल्की भूमि में 2 या 3 चीरे के बाद सिंचाई करें। टपक विधि से सिंचाई करने पर आशाजनक परिणाम प्राप्त होते हैं। 

फसल संरक्षण

रोग


रोमिल फफूंद (downy mildew) : जिस खेत में एक बार रोग हो जाए वहां अगले तीन साल तक अफीम नही बोयें | रोग की रोकथाम हेतु नीम का काढ़ा 500 मिली लीटर प्रति  पम्प और माइक्रो झाइम 25 मिली लीटर प्रति पम्प पानी में अच्छी तरह घोलकर के तीन बार कम से कम तर बतर कर छिड़काव करे छिड़काव बुवाई के तीस, पचास, एवं सत्तर दिन  के बाद करें | 
चूर्णी फफूंद (powdery mildew): फ़रवरी में ढाई किलो गंधक का घुलनशील चूर्ण  प्रति हेक्टेयर कि डर से छिड़काव करं  |
तना सड़न रोग: जब अफीम के पौधे में तना बनना शुरु हो जाता हैै तो regards विशेष प्रकार के जीवाणु द्वारा तने में सड़न लगना शुरू हो जाता है जिस कारण पौधा पूरा मुरझा जाता है और अंत में मर जाता है इसके नियंत्रण के लिए जीवाणु नाशक दवा स्टेपटोसायक्लिन का प्रयोग कृषि वैज्ञानिको के निर्देशानुसार करें।



कीट

डोडा लट

 फूल आने से पूर्व व डोडा लगने के बाद कीटनाशक दवा और माइक्रो झाइम 500 मिली लीटर प्रति हेक्टेयर 400 या 500 लीटर पानी में मिलाकर तर बतर कर छिड़काव करे |

माहु


यह कीट अफीम के पौधों के पत्तियों का रस चुसता  है जिस कारण पौधे कमजोर हो जाते हैं और कमजोर पौधे जल्दी रोगग्रस्त हो जाते हैं इस कीट के निवारण के लिए रसचुसक कीटनाशक का छिड़काव करें।

जड़ काटने वाली ईल्ली


जब अफीम की फसल 25-30दिन की हो जाती है तो जमीन में व्हाइट गर्ब यानी जड़ काटने वाली ईल्ली का प्रकोप शुरू हो जाता है और पौधों की वांछित संख्या में कमी आ जाती हैं जिसके कारण पैदावार प्रभावित होती है कटुआ इल्ली के नियंत्रण के लिए जमीन में सिंचाई के साथ क्लोरो पायरी पास 50 ec दवा का संतुलित प्रयोग करें ।

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अधिक उपज के लिए ध्यान दे :-

(1)          बीजोपचार कर  ही बोवनी करे।
(2)          समय पर बोवनी करे, छनाई समय पर करे।
(3)          फफूंद नाशक एवं कीटनाशक दवाएं निर्घारित मात्रा में उपयोग करें।
(4)          कली, पुष्प डोडा अवस्थाओं पर सिंचाई अवश्य करे।
(5)          नक्के ज्यादा गहरा न लगाएं।
(6)          लूना ठंडे मौसम में ही करें।
(7)          अफीम में लुनाई चिराई का काम कुशल मजदूरों से ही करवाएं
(8)          काली मिस्सी या कोडिया से बचाव के लिए दवा छिड़काव 20-25 दिन पर अवश्य करे।
(9)          हमेशा अच्छे बीज का उपयोग करे।
(10)          समस्या आने पर तुरंत रोगग्रस्त पौधों के साथ कृषि विज्ञान केंद्र के वैज्ञानिकों से सम्पर्क करे।
(11)    तोता नामक पक्षी अफीम के फलों को बड़े चाव से खाता है इसलिए खेत पर या जिस जगह आपने अफीम लगाई है वहां पक्षी रोधक जाल लगाएं ।


क्या नही करें :



1- अधिक नत्रजन नही डालें।
2- अधिक सिंचाई न देवें।
3- 40 पौधे प्रति वर्ग मीटर से ज्यादा पौधे न रखे।
4- काली मिस्सी आने का इंतजार न करें। दवाओं का छिड़काव नियमित करें।
5- काली मिस्सी/कोडिया ग्रसित पौधो को नष्ट करें। खेत की मेड पर न डालें।
6- दवाओ को अलग-अलग ही छिड़के। जब तक स्पष्ट निर्देश न हो तब तक आपस में न मिलावे।
7- केराथियान छिड़काव के साथ यूरिया न मिलावे।
8- भुपाड़ा ग्रसित खेत में अफीम न लेवें। भुपाड़ा को फूल आने के पहले नष्ट कर देवें।
9- एक ही खेत में लगातार अफीम न बोये। फसल चक्र अपनायें।
10- चीरा देर से न लगाएं।
11- अफीम के आसपास सफेद मस्सी से बचने के लिए मेथी, धनिया, मटर, बटला एवं जीरा न लगावें।

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