मटर की उन्नत खेती

मटर की खेती सब्जी और दाल के लिये उगाई जाती है। मटर दाल की आवश्यकता की पूर्ति के लिये पीले मटर का उत्पादन करना अति महत्वपूर्ण है, जिसका प्रयोग दाल, बेसन एवं छोले के रूप में अधिक किया जाता है । पीला मटर की खेती वर्षा आधारित क्षेत्र में अधिक लाभप्रद है । इसका क्षेत्रफल मध्यप्रदेश में 2,64,000 हे. है । इसकी उत्पादकता मध्यप्रदेश में 553 कि.ग्रा. हे. जो कि राष्ट्रीय उत्पादकता (910 कि.ग्रा. प्रति हे.) से काफी कम है । इसकी उत्पादकता बढाने के लिये उन्नत तकनीक अपनाना अति आवष्यक है ।
भूमि:
मटर हेतु दोमट तथा हल्की दोमट भूमि अधिक उपयुक्त है।
भूमि की तैयारी:
प्रथम जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से तथा 2-3 जुताइयां देशी हल या कल्टीवेटर से करनी चाहिए।
संस्तुत प्रजातियाँ:
मटर की प्रजातियों का विवरण:
क्र. सं. प्रजातियाँ उत्पादकता (कु0/हे0) पकने की अवधि (दिन) उपयुक्त क्षेत्र विशेषतायें
1 रचना 20-25 130-135 सम्पूर्ण उ० प्र० लम्बे पौधे, सफेद बुकनी अवरोधी
2 इन्द्र (के.पी.एम.आर.-400) 30-32 125-130 बुन्देलखण्ड मध्यउ० प्र० बौने पौधे, दाने सफेद गोल बुकनी, अवरोधी
3 शिखा (के.एफ.पी.डी.-103) 25-30 125-130 तदैव पौधे लम्बे, दाने सफेद गोल
4 मालवीय मटर 2 20-25 125-130 पूर्वी उ० प्र० पौधे लम्बे दाने सफेद गोल, पर्णिल आसिता रोग प्रतिरोधी
5 मालवीय मटर 15 22-25 120-125 सम्पूर्ण उ० प्र० मध्यम बौने पौधे, सफेद बुकनी एवं रतुआ अवरोधी
6 जे.पी.-885 20-25 130-135 बुन्देलखण्ड हेतु -
7 पूसा प्रभात (डी.डी.आर.-23) 15-18 100-105 पूर्वी उ० प्र० बुकनी रोग अवरोधी
8 पन्त मटर 5 20-25 130-135 मैदानी क्षेत्र पौधे लम्बे, हल्के हरे, बुकनी रोग रोधी।
9 आदर्श (आईपीएफ 99-15) 23-25 130-135 बुंदेलखण्ड हेतु लम्बी, सफेद, बुकनी, अवरोधी।
10 विकास (आईपीएफडी 99-13) 22-25 100-105 तदैव बौनी, सफेद, बुकनी, अवरोधी।
11 जय (के.पी.एम.आर. 522) 32-35 125-130 पश्चिमी उ० प्र० बौनी, सफेद, बुकनी, अवरोधी।
12 सपना (के.पी.एम.आर. 144-1) 30-32 125-130 सम्पूर्ण उ० प्र० बौनी, सफेद, बुकनी रोगरोधी।
13 प्रकाश 28-32 110-115 बुन्देलखण्ड बौनी, सफेद, बुकनी रोगरोधी।
14 हरियाल 26-30 120-125 पश्चिमी उ० प्र० बौनी, हरे गोल दाने, सफेद बुकनी अवरोधी।
15 पालथी मटर 22-30 125-130 पूर्वी उ० प्र० पौधे लम्बे, गोल दाने, सफेद बुकनी एवं रतुआ अवरोधी।
16 आई.पी.एफ.डी. 10-12 25-30 106-109 बुन्देलखण्ड हरा रंग
17 पन्त पी-42 24-25 130-140 पश्चिमी उ० प्र०  
18 अमन (2009) 28-30 120-125 पश्चिमी उ० प्र० लम्बे  
बीज की मात्रा
80-100 किलोग्राम/हेक्टर लम्बे पौधे की प्रजातियों हेतु तथा बौनी प्रजातियों के लिए 125 किग्रा० प्रति हेक्टर।
बीजोपचार
मटर हेतु राइजोबियम, लेग्यूमिनोसेरम कल्चर का प्रयोग होता है।
बुवाई
अक्टूबर के मध्य से नवम्बर के मध्य तक बुवाई हल के पीछे 20 सेमी० (बौनी) 30 सेमी० (लम्बी प्रजाति) की दूरी पर करनी चाहिए। पन्तनगर जीरो टिल ड्रिल द्वारा मटर की बुवाई की जाती है।
बीज शोधन
बीज जनित रोग से बचाव के लिए थीरम 2 ग्राम या मैकोंजेब 3 ग्राम या 4 ग्राम ट्राइकोडरमा अथवा थीरम 2 ग्राम + कार्बेन्डाजिम 1 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से बीज को बोने से पूर्व शोधित करना चाहिए।
बीजशोधन कल्चर द्वारा उपचारित करने के पूर्व करना चाहिए। एक पैकेट (200 ग्राम) राइजोबियम कल्चर से 10 किलोग्राम बीज को उपचारित करके बोना चाहिए। पी.एस.बी. कल्चर का अवश्य प्रयोग करें।
उर्वरक
नत्रजन फास्फोरस पोटाश गन्धक मोलीबिडनम गोबर की खाद
20 किग्रा०/हे० 60 किग्रा०/हे० 40 किग्रा०/हे० 20 किग्रा०/हे० 1 किग्रा० 60 कु०/हे०
बौनी प्रजातियों के लिए 20 किग्रा० नत्रजन बुवाई के समय अतिरिक्त दिया जाये।
सिंचाई
जाड़े में वर्षा न हो तो फूल आने के समय एक सिंचाई करना चाहिए। दाना भरते समय दूसरी सिंचाई लाभप्रद होती है। स्प्रिंकलर (बौछारी) सिंचाई बुदेलखण्ड के लिए लाभकारी होगी।

फसल सुरक्षा

(क) प्रमुख कीट
  • तने की मक्खी:
    इस कीट की मैगट तने के अन्दर रहकर खाती है जिससे तना फूल जाता है। तीव्र प्रकोप की दशा में पूरा पौधा पीला होकर सूख जाता है।
  • अर्द्धकुण्डलीकार कीट (सेमीलूपर):
    इस कीट की सूडियाँ हरे रंग की होती है जो लूप बनाकर चलती है। सूडियाँ पत्तियों, कोमल टहनियों, कलियों, फूलों एवं फलियों को खाकर क्षति पहुँचाती है।
  • पत्ती सुरंगक कीट:
    इस कीट की सूँडी पत्तियों में सुरंग बनाकर हरे भाग को खाती है। जिसके फलस्वरूप पत्तियों में अनियमित आकार की सफेद रंग की रेखायें बन जाती है।
  • फली बेधक कीट:
    इस कीट की सूडियाँ चपटी एवं हरे रंग की होती है। जो फलियों में छेद बनाकर अन्दर घुस जाती है तथा अन्दर ही अन्दर दानों को खाती रहती है। तीव्र प्रकोप की दशा में फलियाँ खोखली हो जाती है तथा उत्पादन में गिरावट आ जाती है।
आर्थिक क्षति स्तर
कं.सं. कीट का नाम फसल की अवस्था आर्थिक क्षति स्तर
1 तने की मक्खी फसल उगने के एक से डेढ़ महीने के अन्दर 5 प्रतिशत प्रभावित पौधे
2 अर्द्धकुण्डलीकार कीट फूल एवं फलियॉ बनते समय 2 सूड़ी प्रति 10 पौधे
3 फली बेधक कीट फलियॉ आने पर 5 प्रतिशत प्रभावित पौधे
नियंत्रण के उपाय
  • समय से बुवाई करनी चाहिए क्योंकि अगेती बोई गयी फसल में तने की मक्खी तथा देर से बोयी गई फसल में फली बेधक कीट के प्रकोप की सम्भावना बढ़ जाती है।
  • यदि कीट का प्रकोप आर्थिक क्षति स्तर पार कर गया हो तो निम्नलिखित कीटनाशकों का प्रयोग करना चाहिए।
    • तने की मक्खी एवं पत्ती सुरंगक कीट के नियंत्रण हेतु बुवाई से पूर्व कार्बोफ्यूरान 3 सी.जी. 15 किग्रा० अथवा फोरेट 10 जी 10 किग्रा० प्रति हेक्टेयर बुवाई से पूर्व मिट्टी में मिलाना चाहिए। खड़ी फसल में कीट नियंत्रण हेतु नियंत्रण हेतु डाईमेथोएट 30 प्रतिशत ई.सी. अथवा मिथाइल-ओ-डेमेटान 25 प्रतिशत ई.सी. की 1.0 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से लगभग 500-600 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए। एजाडिरेक्टिन (नीम आयल) 0.15 प्रतिशत ई0सी0, 2.5 ली0 प्रति हेक्टेयर की दर से भी प्रयोग किया जा सकता है।
    • फली बेधक कीट एवं अर्द्धकुण्डलीकार कीट के नियंत्रण हेतु निम्नलिखित जैविक/रसायनिक कीटनाशकों में से किसी एक रसायन का बुरकाव अथवा 500-600 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर छिड़काव करना चाहिए।
      • बैसिलस थूरिनजिएन्सिस (बी.टी.) की कर्स्टकी प्रजाति 1.0 किग्रा०।
      • एजाडिरैक्टिन 0.03 प्रतिशत डब्लू.एस.पी. 2.5-3.00 किलोग्राम।
      • एन.पी.वी. (एच) 2 प्रतिशत ए.एस.।
      • फेनवैलरेट 20 प्रतिशत ई.सी. 1.0 लीटर।
      • क्यूनालफास 25 प्रतिशत ई.सी. 2.0 लीटर।
      • मोनोक्रोटोफास 36 प्रतिशत एस.एल. 1.0 लीटर।
खेत की निगरानी करते रहें। आवश्यकतानुसार ही दूसरा बुरकाव/छिड़काव 15 दिन के अन्तराल पर करें। एक कीटनाशी को दूसरी बार न दोहरायें।
(ख) प्रमुख रोग
  • उकठा:
    इस रोग में पौधा धीरे-धीरे मुरझाकर सूख जाता है। पौधे को उखाड़कर देखने पर उसकी मुख्य जड़ एवं उसकी शाखायें सही सलामत होती है। छिलका भूरा रंग का हो जाता है तथा जड़ का चीर कर देखें तो उसके अन्दर भूरे रंग की धारियाँ दिखाई देती है। उकठा का प्रकोप पौधे के किसी भी अवस्था में हो सकता है।
  • अल्टरनेरिया पत्ती धब्बा रोग:
    इस रोग में पत्तियों पर छल्ले के समान गोल धब्बे दिखाई देते है। अनुकूल परिस्थिति में धब्बे आपस में मिल जाते है जिससे पूरी पत्ती झुलस जाती है।
  • बुकनी रोग:
    इस रोग में पत्तियों, तनों एवं फलियों पर सफेद चूर्ण दिखाई देते है।, जिससे बाद में पत्तियाँ सूख कर गिर जाती है।
  • मृदु रोमिल (तुलासिता):
    इस रोग में पुरानी पत्तियों की ऊपरी सतह पर छोटे-छोटे धब्बे तथा पत्तियों की निचली सतह पर इन धब्बों की नीचे सफेद रोयेदार फफूदी उग आती है। धीरे-धीरे पूरी पत्ती पीली होकर सूख जाती है। इसी प्रकार फलियों के ऊपर भी धब्बे बनते है तथा उसी धब्बे के नीचे फलियों के अन्दर रूई के समान फफूँद उग आती है जिससे फलियों में दाने नहीं बनते है।
नियंत्रण के उपाय
  • शस्य क्रियायें
    • गर्मियों में मिट्टी पलट हल से जुताई करने से भूमि जनित रोगों के नियंत्रण में सहायता मिलती है।
    • जिस खेत में प्रायः उकठा लगता हो तो यथा सम्भव उस खेत में 3-4 वर्ष तक मटर की फसल नहीं लेनी चाहिए।
    • उकठा से बचाव हेतु अवरोधी प्रजातियों की बुवाई करना चाहिए।
    • बुकनी रोग से बचाव हेतु प्रतिरोधी प्रजाति रचना, पंत मटर-5, मालवीय मटर-2 आदि बुवाई हेतु प्रयोग करना चाहिए।
  • बीज उपचार
  • बीज जनित रोगों के नियंत्रण हेतु थीरम 75 प्रतिशत+कार्बेन्डाजिम 50 प्रतिशत (2:1) 3.0 ग्राम, अथवा ट्राईकोडरमा 4.0 ग्राम प्रति किग्रा० बीज की दर से शोधित कर बुवाई करना चाहिए।
  • भूमि उपचार
  • भूमि जनित एवं बीज जनित रोगों के नियंत्रण हेतु बायोपेस्टीसाइड (जैव कवक नाशी) ट्राइकोडरमा बिरड़ी 1 प्रतिशत डब्लू.पी. अथवा ट्राइकोडरमा हारजिएनम 2 प्रतिशत डब्लू.पी. की 2.5 किग्रा० प्रति हे0 60-75 किग्रा० सड़ी हुए गोबर की खाद में मिलाकर हल्के पानी का छींटा देकर 8-10 दिन तक छाया में रखने के उपरान्त बुवाई के पूर्व आखिरी जुताई पर भूमि में मिला देने से मटर के बीज/भूमि जनित रोगों का नियंत्रण हो जाता है।
  • पर्णीय उपचार
    • अल्टरनेरिया पत्ती धब्बा एवं तुलासिता रोग के नियंत्रण हेतु मैंकोजेब 75 डब्लू.पी. की 2.0 किग्रा० अथवा जिनेब 75 प्रतिशत डब्लू.पी. की 2.0 किग्रा० अथवा कापर आक्सीक्लोराइड 50 प्रतिशत डब्लू.पी. की 3.0 किग्रा० मात्रा प्रति हेक्टेयर लगभग 500-600 लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करना चाहिए।
    • बुकनी रोग के नियंत्रण हेतु घुलनशील गंधक 80 प्रतिशत 2 किग्रा० अथवा ट्राईडेमार्फ 80 प्रतिशत ई.सी. 500 मिली0 प्रति हेक्टेयर लगभग 500-600 लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करना चाहिए।
(ग) प्रमुख खरपतवार
बथुआ, सेन्जी, कृष्णनील, हिरनखुरी, चटरी-मटरी, अकरा-अकरी, जंगली गाजर, गजरी, प्याजी, खरतुआ, सत्यानाशी आदि।
नियंत्रण के उपाय
  • खरपतवारनाशी रसायन द्वारा खरपतवार नियंत्रण करने हेतु फ्लूक्लोरैलीन 45 प्रतिशत ई.सी. की 2.2 ली0 मात्रा प्रति हेक्टेयर लगभग 800-1000 लीटर पानी में घोलकर बुवाई के तुरन्त पहले मिट्टी में मिलाना चाहिए। अथवा पेण्डीमेथलीन 30 प्रतिशत ई.सी. की 3.30 लीटर अथवा एलाक्लोर 50 प्रतिशत ई.सी. की 4.0 लीटर मात्रा प्रति हेक्टेयर उपरोक्तानुसार पानी में घोलकर फ्लैट फैन नाजिल से बुवाई के 2-3 दिन के अन्दर समान रूप से छिड़काव करें।
  • यदि खरपतवारनाशी रसायन का प्रयोग न किया गया हो तो खुरपी से निराई कर खरपतवारेां का नियंत्रण करना चाहिए।
कटाई तथा भण्डारण
फसल पूर्ण पकने पर कटाई की जाय। साफ सुथरे खलियान में इसकी मड़ाई करके दाना निकालें। भण्डारण कीटों से रक्षा हेतु अल्यूमिनियम फास्फाइड 3 गोली प्रति मीटरी टन की दर से प्रयोग में लायें।
प्रभावी बिन्दु
  • क्षेत्रीय अनुकूलतानुसार प्रजाति का चयन कर प्रमाणित बीज का प्रयोग करें।
  • समय से ही बुवाई करें।
  • फास्फोरस एवं गंधक हेतु सिंगल सुपर फास्फेट का प्रयोग करें।
  • रतुआ के नियंत्रण हेतु 0.1% जिंक सल्फेट का छिड़काव करें।
  • अतिशीघ्र पकने वाली मटर की प्रजातियों की अधिक उपज हेतु पौधों की संख्या 6.6 लाख (15×10 से.मी.) प्रति हे० सुनिश्चित करें।

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