चना उत्पादन की उन्नत तकनीक
खेत की तैयारी
- चना के खेती के लिए खेत की मिट्टी बहुत ज्यादा महीन या भुरभुरी बनाने की आवश्यकताा नही होती।
2. बुआई के लिए खेत को तैयार करते समय 2-3 जुताईयाँ कर खेत को समतल बनाने के लिए पाटा लगाऐं। पाटा लगाने से नमी संरक्षित रहती है।
प्रजातियां
- काबुली चना की डालर एवं डबल डालर प्रजातियों का विकल्प
किस्में | अनुषंसित वष्र | अवधि (दिनों में) | उपज (क्विं/हे.) | प्रमुख विषेषताएं |
जे.जी.के 1 | 2003 | 110-115 | 15-18 | पौधे मध्यम लम्बे, कम फैलने वाले, पत्तियां बड़ी सफेद फूल, क्रीम सफेद रंग का बड़े आकार का बींज |
जे.जी.के 2 | 2007 | 95-110 | 15-18 | जल्दी पकने वाली, बड़ी पत्तियां, कम फेलाव, सफेद फूल, सफेद क्रीम रंग का बड़ा दाना सौ दानों का वजन 33-36 ग्राम, पकने में उत्तम, बहुरोग रोध |
जे.जी.के 3 | 2007 | 95 -110 | 15-18 | काबुली चने की बड़े दाने की जाति, बीज चिकना, सौ दानों का वजन 44 ग्राम, प्रचुर शाखाऐं |
किस्में | अनुषंसित वष्र | अवधि (दिनों में) | उपज (क्विं/हे.) | प्रमुख विषेषताएं |
जे.जी. 14 | 2009 | 95-110 | 20-25 | दाल बनाने के लिए उपयुक्त, अधिक तापमान सहनषिल, उकठा रोग प्रतिरोधी, मध्य प्रदेष के सिचित क्षेत्रों, देर से बोने के लिए अनुषंसित |
जाकी 9218 | 2006 | 112 | 18-20 | कम फैलाव वाला पौधा, प्रोफूज शाखायें, पौधा हल्का भूरे, दाने कोणीय आकार, चिकनी सतह, सौ दाने का वनज 20-27 ग्राम, सिंचित एवं असिंचित खेती के लिये अनुशंसित। |
जे.जी 63 | 2006 | 110-120 | 20-25 | उकठा, कालर सड़न, सूखा जड़ सड़न हेतु रोधी क्षमता, पाड़ बोरर हेतु सहनशील, सिंचित/असिंचित हेतु उपयुक्त। पूरे मध्य प्रदेश हेतु उपयुक्त। प्रचुर मात्रा में शाखायें तथा बड़ी फलियाँ, बीज पीला भूरा मध्यम बड़े आकार के। |
जे.जी 412 | 2004 | 90-100 | 15-18 | सोयाबीन-आलू- चना फसल प्रणली हेतु उपयुक्त देर से बोनी हेतु अनुशंसित। चना फुटाने में उत्तम |
जे.जी 130 | 2002 | 100-120 | 19 | हल्का फैलाव वाला पौधा जिसमें प्रचुर मात्रा में शाखायें आती है, हल्की हरी पत्तियाँ, बैगनी तना एवं गहरे गुलाबी फूल, हल्का बादामी भूरे रंग का बड़ा कोणीय आकार का चिकना बीज, उकठा प्रतिरोधी, असिंचित क्षेत्र हेतु भी उपयुक्त। |
जे.जी 16 | 2001 | 110-120 | 18-20 | यह किस्म असिंचित एवं सिंचति क्षेत्र हेतु उपयुक्त है, मध्यम आकार का चिकना बीज, उकठा रोग हेतु सहनषील। |
जे.जी 11 | 1999 | 100-110 | 15-18 | बड़ा चिकना कोणीय आकार का; बीज, उकठा, रोधी क्षमता, सूखा जड़ सड़न एवं जड़ सड़न रोधी, सिंचित व असिंचित क्षेत्रों हेतु उपयुक्त। |
जे.जी 322 | 1997 | 110-115 | 18-20 | पौधे मध्यम लम्बे, आवरण चिकना, बादामी हिस्सा निकला हुआ, उकठा रोग प्रतिरोधी, पूरे मध्य प्रदेष हेतु सिचित क्षेत्रों के लिए उपयुक्त, निमाण क्षेत्र के लिए अनुषंसित |
जे.जी 218 | 1996 | 110-120 | 15-18 | पत्तियां गहरी हरी, बादामी भूरे रंग की, कोणीय चिकना बड़ा बीज, उकठा रोग (फयूजेरियम विल्ट) हेतु प्रतिरोधक क्षमता, मालवा क्षेत्र के लिए अनुषंसित |
जे.जी 74 | 1991 | 120-125 | 15-18 | फूल गुलाबी रंग का; इसके बीज का आवरण झुर्रीदार, सिकुड़ा, दानों की ऊपरी सतह खुरदुरी, उकठा हेतु प्रतिरोधक क्षमता, साथ ही अनाज भंडारण कीड़ों के प्रति सहनषील हैं देरी से बोनी हेतु मध्य भारत के लिए अनुषंसित |
जे.जी 315 | 1984 | 115-125 | 15-18 | सबसे प्रचलित किस्म, उकठा रोग के लिये प्रतिरोधक क्षमता रखती है। देर से बोनी हेतु भी उपयुक्त। मध्य भारत के लिए अनुषंसित |
बीज उपचार
रोग नियंत्रण हेतुः1. उकठा एवं जड़ सड़न रोग से फसल के बचाव हेतु 2 ग्राम थायरम 1 ग्राम कार्बेन्डाजिम के मिश्रण से प्रति किलो बीज को उपचारित करें । या
2. बीटा वेक्स 2 ग्राम/किलो से उपचारित करें।
कीट नियंत्रण हेतुः
1. थायोमेथोक्साम 70 डब्ल्यू पी 3 ग्राम/किलों बीज की दर से उपचारित करें
पोषक तत्व उपलब्ध कराने हेतु
जीवाणु संवर्धनः
राइजोवियम एवं पी.एस.बी. प्रत्येक की 5 ग्राम मात्रा प्रतिकिलो बीज की दर से उपचारित करें ।2. 100 ग्राम गुड़ का आधा लिटर पानी में घोल बनायें घोल को गुनगुना गर्म करें तथा ठंडा कर एक पैकेट राइजोवियम कल्चर मिलाऐं ।
3. घोल को बीज के ऊपर समान रूप से छिड़क दें और धीरे-धीरे हाथ से मिलाऐं ताकि बीज के ऊपर कल्चर अच्छे से चिपक जाऐं।
4. उपचारित बीज को कुछ समय के लिए छाँव में सुखाऐं।
5. पी.एस.बी. कल्चर से बीज उपचार राईजोवियम कल्चर की तरह करें।
6. मोलेब्डनम 1 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से उपचारित करें ।
बुआई का समय –
- असिंचित अवस्था में चना की बुआई अक्टूबर के द्वितीय सप्ताह तक कर देनी चाहिए।
- चना की खेती, धान की फसल काटने के बाद भी की जाती है, ऐसी स्थिति में बुआई दिसंबर के मध्य तक अवष्यक कर लेनी चाहिए।
- बुआई में अधिक विलम्ब करने पर पैदावार कम हो जाती है। तथा फसल में चना फली भेदक का प्रकोप भी अधिक होने की सम्भावना बनी रहती है। अतः अक्टूबर का प्रथम सप्ताह चना की बुआई के लिए सर्वोत्तम होता है।
बुआई
- क्षेत्रवार संस्तुत रोगरोधी प्रजातियाँ तथा प्रमाणिक बीजों का चुनाव कर उचित मात्रा में प्रयोग करें।
- खेत पूर्व फसलों के अवषोषों से मुक्त होना चाहिये। इससे भूमिगत फफूंदों का विकास नहीं होगा।
- बोने से पूर्व बीजो की अंकुरण क्षमता की जांच स्वयं जरूर करें। ऐसा करने के लिये 100 बीजों को पानी में आठ घंटे तक भिगो दें। पानी से निकालकर गीले तौलिये या बोरे में ढक कर साधारण कमरे के तामान पर रखें। 4-5 दिन बाद अंकुरितक बीजों की संख्या गिन लें।
- 90 से अधिक बीज अंकुरित हुय है तो अकुरण प्रतिषत ठीक है। यदि इससे कम है तो बोनी के लिये उच्च गुणवत्ता वाले बीज का उपयोग करें या बीज की मात्रा बढ़ा दें।
बुआई की विधि; –
- समुचित नमी में सीडड्रिल से बुआई करें।
- खेत में नमी कम हो तो बीज को नमी के सम्पर्क में लाने के लिए बुआई गहराई में करें तथा पाटा लगाऐं।
- पौध संख्या 25 से 30 प्रति वर्ग मीटर के हिसाब से रख्ेा ।
- पंक्तियों (कूंड़ों) के बीच की दूरी 30 से.मी. तथा पौधे से पौधे की दूरी 10 से.मी. रखे ।
- सिंचित अवस्था में काबुली चने में कूंड़ों के बीच की दूरी 45 से.मी. रखनी चाहिए।
- पछेती बोनी की अवस्था में कम वृद्धि के कारण उपज में होने वाली क्षति की पूर्ति के लिए सामान्य बीज दर में 20-25 तक बढ़ाकर बोनी करें।
- देरी से बोनी की अवस्था में पंक्ति से पंक्ति की दूरी घटाकर 25 से.मी. रखें।
बीज दर:-
चना के बीज की मात्रा दानों के आकार (भार), बुआई के समय विधि एवं भूमि की उर्वराषक्ति पर निर्भर करती है- देषी छोटे दानों वाली किस्मों का 65 से 75 कि.ग्रा./हे. जे.जी. 315, जे.जी.74, जे.जी.322, जे.जी.12, जे.जी. 63, जे.जी. 16
- मध्यम दानों वाली किस्मों का 75-80 कि.ग्रा./हे. जे.जी. 130, जे.जी. 11, जे.जी. 14, जे.जी. 6
- काबुली चने की किस्मों का 100 कि.ग्रा./हे. की दर से बुवाई करंे जे.जी.के 1, जे.जी.के 2, जे.जी.के 3
खाद एवं उर्वरक
- उर्वरकों का उपयोग मिट्टी परीक्षण के आधार पर ही किया जाना चाहिए।
- चना के पौधों की जड़ों में पायी जाने वाली ग्रंथियों में नत्रजन स्थिरीकरण जीवाणु पाये जाते हैं जो वायुमण्डल से नत्रजन अवषोषित कर लेते है तथा इस नत्रजन का उपयोग पौधे अपनी वृद्धि हेतु करते हैं।
- अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए 20-25 किलोग्राम नत्रजन 50-60 किलोग्राम फास्फोरस 20 किलोग्राम पोटाष व 20 किलोग्राम गंधक प्रति हेक्टेयर की दर से उपयोग करे ।
- वैज्ञानिक षोध से पता चला है कि असिंचित अवस्था में 2 प्रतिषत यूरिया या डी.ए.पी. का फसल पर स्प्रे करने से चना की उपज में वृद्धि होती है।
सिंचाई प्रबंध –
हानि का प्रतिषत | प्रमुख खरपतवार | प्रयुक्तनाषी | मात्रा (कि.ग्रा.) | व्यवसायिक उत्पाद | दर/हे. | छिड़काव का समय |
15-35 | अकरी,भुई आंवला, जंगली वटरी,जंगली पालक सबूनी लहसुआ, जंगली जई, गुड़ी डण्डा बथुवा 1.0 | पेन्डीमिथलीन | 1.0 | स्टाम्प 30 ई.सी. | 3.3 ली. | बुआई के 3 दिन के अन्दर |
क्लोडीनाफाप | 0.6 | टाॅपिक 15 डब्ल्य.ू पी. | 300 ग्राम | बुआई के 25-30 दिन बाद |
प्रमुख रोग एवं नियंत्रण उकठा / उगरा रोग :-
लक्षण
- उकठा चना की फसल का प्रमुख रोग है
- उकठा के लक्षण बुआई के 30 दिन से फली लगने तक दिखाई देते है ।
- पौधों का झुककर मुरझाना
- विभाजित जड़ में भूरी काली धारियों का दिखाई देना ।
नियंत्रण विधियाँ :-
- चना की बुवाई अक्टूबर माह के अंत में या नवम्बर माह के प्रथम सप्ताह में करें
- गर्मी के मौसम (अप्र – मई) में खेत की गहरी जुताई करें
- उकठा रोगरोधी जातियां लगाऐं जैसे
- देसी चना जे.जी. 315, जे.जी. 322, जे.जी. 74, जे.जी. 130, जाकी 9218, जे.जी. 16, जे.जी. 11, जे.जी. 63, जे.जी. 12, काबुली – जे.जी.के. 1, जे.जी.के. 2, जे.जी.के. 3
- काबुली चना – जे.जी.के. 1, जे.जी.के. 2, जे.जी.के. 3 ऽ बीज बोने से पहले कार्बाक्सिन 75ःूच फफूंद नाषक की 2 ग्राम मात्रा प्रति किले बीज की दर से करें ।
- सिंचाई दिन में न करते हुए शाम के समय करें ।
नियंत्रण विधियाँ:-
- फसल को शुष्क एवं गर्मी के वातावरण से बचाने के लिए बुआई समय से करनी चाहिए।
- अप्रेल – मई में खेत को गहरा जोतकर छोड़ देने से कवक के बीजाणु कम हो जाते है।
- ट्राईकोडर्मा 5 किलो ग्राम/ हे. 50 किलो ग्राम पकी गोबर की खाद के साथ मिलाकर खेत में डाले।
प्रमुख कीट एवं नियंत्रण चना फलीभेदक
चने की फसल पर लगने वाले कीटों में फली भेदक सबसे खतरनाक कीट है। इस कीट क प्रकोप से चने की उत्पादकता को 20-30 प्रतिषत की हानि होती है। भीषण प्रकोप की अवस्था में चने की 70-80 प्रतिषत तक की क्षति होती है।- चना फलीभेदक के अंडे लगभग गोल, पीले रंग के मोती की तरह एक-एक करके पत्तियों पर बिखरे रहते हैं
- अंडों से 5-6 दिन में नन्हीं-सी सूड़ी निकलती है जो कोमल पत्तियों को खुरच-खुरच कर खाती है।
- सूड़ी 5-6 बार अपनी केंचुल उतारती है और धीरे-धीरे बड़ी होती जाती है। जैसे-जैसे सूड़ी बड़ी होती जाती है, यह फली में छेद करके अपना मुंह अंदर घुसाकर सारा का सारा दाना चट कर जाती है।
- ये सूड़ी पीले, नारंगी, गुलाबी, भूरे या काले रंग की होती है। इसकी पीठ पर विषेषकर हल्के और गहरे रंग की धारियाँ होती हैं।
समेकित कीट प्रबंधन
(क) यौन आकर्षण जाल (सेक्स फेरोमोन ट्रैप)ः
इसका प्रयोग कीट का प्रकोप बढ़ने से पहले चेतावनी के रूप में करते हैं। जब नर कीटों की संख्या प्रति रात्रि प्रति टैªप 4-5 तक पहुँचने लगे तो समझना चाहिए कि अब कीट नियंत्रण जरूरी। इसमें उपलब्ध रसायन (सेप्टा) की ओर कीट आकर्षित होते है। और विशेष रूप से बनी कीप (फनल) में फिसलकर नीचे लगी पाॅलीथीन में एकत्र हो जाते है।(ख). सस्य क्रियाओं द्वारा नियंत्रण
- गर्मी में खेतों की गहरी जुताई करने से इन कीटों की सूड़ी के कोषित मर जाते है।
- फसल की समय से बुआई करनी चाहिए
- अंतर्वती फसल – चना फसल के साथ धनियों/सरसों एवं अलसी को हर 10 कतार चने के बाद 1-2 कतार लगाने से चने की इल्ली का प्रकोप कम होता है तथा ये फसलें मित्र कीड़ों को आकर्षित करती हैं ।
- प्रपंची फसल– चना फसल के चारों ओर पीला गेन्दा फूल लगाने से चने की इल्ली का प्रकोप कम किया जा सकता है । प्रौढ़ मादा कीट पहले गेन्दा फूल पर अन्डे देती है । अतः तोड़ने योग्य फूलों कोसमय-समय पर तोड़कर उपयोग करने से अण्डे एवं इल्लियों की संख्या कम करने में मदद् मिलती है।
जैविक नियंत्रण
- न्युक्लियर पोलीहैड्रोसिस विषाणुः आर्थिक हानि स्तर की अवस्था में पहुंचने परसबसे पहले जैविक कीट नाषी एच को मि प्रति हे के हिसाब से लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करना चाहिए।
- जैविक कीटनाषी में विषाणु के कण होते हैं जो सुंडियों द्वारा खाने पर उनमें विषाणु की बीमारी फैला देते हैं जिससे वे पीली पड़ जाती है तथा फूल कर मर जाती हैं।
- रोगग्रसित व मरी हुई सुंडियाँ पत्तियों व टहनियों पर लटकी हुई नजर आती हैं।
- कीटभक्षी चिडि़यों को संरक्षण फलीभेदक एवंकटुआ कीट के नियंत्रण में कीटभक्षी चिडि़यों का महत्वपूर्ण योग दान है। साधारणतयः यह पाया गया है कि कीटभक्षी चिडि़याँ प्रतिषत तक चना फलीभेदक की सूडी को नियंत्रित कर लेती है।
जैविक नियंत्रण
. परजीवी कीड़ों को बढ़ावा देने के लिए अधिक पराग वाली फसल जैसे धनिया आदि को खेत के चारों ओर लगाना चाहिए।- कीटभक्षी चिडि़यों को आकर्षित एवं उत्साहित करने के लिए उनके बैठने के लिए स्थान बनाने चाहिए सुंडियों का आक्रमण होने से पहले यदि खेत में जगह पर तीन फुट लंबी डंडियाँ टी एन्टीनाआकार मंे लगा दी जाये ंतो इन पर पक्षी बैठेंगे जो सूंडियों को खा जाते हैं। इन डंडियों को फसल पकने से पहले हटा दें जिससे पक्षी फसल के दानों को नुकसान न पहुंचायें।
रासायनिक नियंत्रण
- नीम व नीम आधारित रसायन
- नीम की निम्बोली का अर्क भी सुंडियों के नियंत्रण में लाभकारी है।
- 12-13 किलो निम्बोली सुखाकर व पीस कर उसका भर 25 लीटर पानी में भिगोकर तथामहीन कपड़े से छानकर इसका अर्क तैयार हो जाता है। इसमें 500 ग्रा निरमापाउडर मिलायें। इसको 250 लिटर पानी में मिलाकर प्रति हैक्टेयर केहिसाब से छिड़काव करना चाहिए।
कीटनाशी रसायन
विभिन्न कीटनाशी रसायनों को कटुआ इल्ली/ फलीभेदक इल्ली को नियंत्रित करने के लिए संस्तुत किया गया है । जिनमें से- क्लोरोपायीरफास (2 मि.लि प्रति लिटर प#2368;) + या इन्डोक्साकार्व 14.5 एस.सी. 300 ग्राम प्रति हेक्टेयर
- या इमामेक्टिन बेन्जोइट की 200 ग्राम दवा प्रति हेक्टेयर 500 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें ।
घुन का निंयत्रण
चना का भण्डारण करते समय नमी पर ध्यान देना चाहिए। दानों को सुखाकर उपकी नमी को 10-12 प्रतिषत रखना चाहिए। ऐसा न करने पर चने के दानों को घुन से नुकसान होता है। प्रायः देखा गया है कि घुन का प्रकोप देषी की अपेक्षा काबुली चना में अधिक होता हैंउपाय:
- दानों को अच्छी तरह धूप में सुखाकर ही भण्डार में रखना चाहिए।
- पेलीथिन के अस्तर लगे बोरों तथा आधुनिक भण्डारण संरचनाओं का प्रयोग करना चाहिए।
- दानों को सरसों, महुआ या नारियल के तेल से 8-10 ग्राम प्रति किलोग्राम की दर से उपचारित करने से घुन का प्रकोप कम होता है।
- बन्द भण्डारण संरचनाओं में पारद टिकरी का प्रयोग करें। 2 टिकिया प्रति 10 किलोग्राम बीज के हिसाब से रखने पर घुन से होने वाली हानि से बचाया जा सकता है।
- अधिक मात्रा में एक साथ भण्डारण के लिए ई.डी.बी. ऐम्प्यूल का प्रयोग करना चाहिए।
कटाई, मड़ाई एवं भण्डारण
चना की फसल की कटाई विभिन्न क्षेत्रों में जलवायु, तापमान, आर्द्रता एवं दानों में नमी के अनुसार विभिन्न समयों पर होती है।- व फली से दाना निकालकर दांत से काटा जाए और कट की आवाज आए, तब समझना चाहिए कि चना की फसल कटाई के लिए तैयार हैं
- व चना के पौधों की पत्तियां हल्की पीली अथवा हल्की भूरी हो जाती है, या झड़ जाती है तब फसल की कआई करना चाहिये।
- व फसल के अधिक पककर सूख जाने से कटाई के समय फलियाँ टूटकर खेत में गिरने लगती है, जिससे काफी नुकसान होता है। समय से पहले कटाई करने से अधिक आर्द्रता की स्थिति में अंकुरण क्षमता पर प्रभाव पड़ता है। काटी गयी फसल को एक स्थान पर इकट्ठा करके खलिहान में 4-5 दिनों तक सुखाकर मड़ाई की जाती है।
- व मड़ाई थ्रेसर से या फिर बैलों या ट्रैक्टर को पौधों के ऊपर चलाकर की जाती है।
अधिक उपज प्राप्त करने हेतु प्रमुख पांच बिन्दु
- नवीनतम किस्मों जे.जी. 16, जे.जी. 14, जे.जी. 11के गुणवत्तायुक्त तथा प्रमाणित बीज बोनी के लिए इस्तेमाल करें।
- बुवाई पूर्व बीज को फफूदनाषी दवा थायरम व कार्बन्डाजिम 2:1 या कार्बोक्सिन 2 ग्राम / किलो बीज की दर से उपचारित करने क बाद राइजोबियम कल्चर 5 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से तथा मोलिब्डेनम 1 ग्राम प्रति किलो बीज कल दर से उपचारित करें।
- बोनी कतारों में साीडड्रिल मशीन ऽ कीट ब्याधियों की रोकथाम के लिए खेत में टी आकार की खूटियां लगायें चना धना (10:2) की अन्तवर्तीय फसल लगायें ।
- आवश्यक होने पर रासायनिक दवा इमामेक्टिन बेन्जोइट 200 ग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से उपयोग करें ।
सौजन्यता-: मध्यप्रदेश कृषि विभाग
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